मैं वाणी हूँ...
मैं आधार हूँ, अधिकार भी हूँ,
मैं जननी अनगिनत शब्दों की,
मैं कर्कशा तो कभी मिठास भी,
मैं बेसुरी तो कभी सुरमयी भी
मुझे जानते सभी,मुझसे है सृष्टि यही,
जो अपमान करो तो करती विनाश हूँ,
जो विचार करो तो लाती खुशहाली हूँ,
मैं बुध्दि की संगिनी तो शत्रु भी हूँ
मैं घर घर में समाई हूँ
नही जिस घर, उसमे उदासी छाती
मुझ पे सरस्वती विराजती
मुझसे दुनिया है चलती
फिर क्यों सूझ बूझ खो कर हर इंसान करवाहट जीवन में घोल रहा है,
क्यों बे वजह मुँह से बोल रहा है?
क्यों प्यार नहीं इस दुनिया में?
क्यों मन उदास और व्याकुल है?
क्यों दिल पे तीरों का आघात है
वजह मैं ही तो हूँ ,जो बुध्दि की संगिनी तो शत्रु भी हूँ
मैं वाणी हूँ
जो मिठास जीवन में घोलती, जब बुध्दि मेरे साथ,
जो उजाड़ दे ज़िन्दगी, जब बुध्दि चले उल्टे पाव
Very true and powerful!!
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