मैं वाणी हूँ...
मैं आधार हूँ, अधिकार भी हूँ,
मैं जननी अनगिनत शब्दों की,
मैं कर्कशा तो कभी मिठास भी,
मैं बेसुरी तो कभी सुरमयी भी
मुझे जानते सभी,मुझसे है सृष्टि यही,
जो अपमान करो तो करती विनाश हूँ,
जो विचार करो तो लाती खुशहाली हूँ,
मैं बुध्दि की संगिनी तो शत्रु भी हूँ
मैं घर घर में समाई हूँ
नही जिस घर, उसमे उदासी छाती
मुझ पे सरस्वती विराजती
मुझसे दुनिया है चलती
फिर क्यों सूझ बूझ खो कर हर इंसान करवाहट जीवन में घोल रहा है,
क्यों बे वजह मुँह से बोल रहा है?
क्यों प्यार नहीं इस दुनिया में?
क्यों मन उदास और व्याकुल है?
क्यों दिल पे तीरों का आघात है
वजह मैं ही तो हूँ ,जो बुध्दि की संगिनी तो शत्रु भी हूँ
मैं वाणी हूँ
जो मिठास जीवन में घोलती, जब बुध्दि मेरे साथ,
जो उजाड़ दे ज़िन्दगी, जब बुध्दि चले उल्टे पाव
Saturday, January 10, 2009
शहरों की दास्ताँ
एक शहर ऐसा भी था
जहाँ चमचमाती रोशनी तो थी
पर अँधेरी ज़िन्दगी थी
जहां भीड़ में हर इंसान गुम हो चुका था
जहाँ दर्द, प्रेम जैसी भावनायें विलुप्त हो गयी थी
सिर्फ नकली चकाचोंधनी थी
एक शहर ऐसा भी था,
जो अपनेआप में जी रहा था
जाती संप्रदाय के झगडों में लोट-पोट हो रहा था
जहाँ भाषा एक अभिशाप बन रही थी
जहाँ प्यार होते हुए भी अलगाव था
एक शहर ऐसा भी था,
जो अपनी छवि सुधारने मे लगा था
जहाँ परस्पर प्यार तो था
पर राजनैतिक वातावरण छाया था
जहाँ माँगे हुए वोटो का असर कभी दिखता ही नही था
हर शहर में, एक अलग भीड़ नज़र आती है
हर शहर अपनी दास्तां खुद लिखता है
कोई गुलाल के रंगो में रंगा हैं
तो कोई खून की होली खेल रहा है
कोई जाति के दंगे फ़साद झेल रहा है
तो कोई बाबरी मज़्ज़िद के मुद्दे उखेड़ रहा है
शहर क्या होता है- हम लोगो का बसेरा
हम लोगों का डेरा
हम ही शहरों को आबाद करते हैं
और हम ही इन्हें बर्बाद कर देते हैं
हम वो गंदगी फैलाते हैं, जिन्हे चन्द लोग सिर्फ़ मन में सॉफ करते हैं
करना होगा , आगे बढ़ना होगा
एक नई सुबह का नही-अभी और आज में जीना होगा
वो प्यार फलाना होगा
जहाँ कोई जाति नही....कोई मज़हब नही....कोई भाषा नही...
सिर्फ़ प्यार का साम्राज्य होगा
ऐसे शहर को मिलकर हमे बनाना होगा
- वाणी मेहता
जहाँ चमचमाती रोशनी तो थी
पर अँधेरी ज़िन्दगी थी
जहां भीड़ में हर इंसान गुम हो चुका था
जहाँ दर्द, प्रेम जैसी भावनायें विलुप्त हो गयी थी
सिर्फ नकली चकाचोंधनी थी
एक शहर ऐसा भी था,
जो अपनेआप में जी रहा था
जाती संप्रदाय के झगडों में लोट-पोट हो रहा था
जहाँ भाषा एक अभिशाप बन रही थी
जहाँ प्यार होते हुए भी अलगाव था
एक शहर ऐसा भी था,
जो अपनी छवि सुधारने मे लगा था
जहाँ परस्पर प्यार तो था
पर राजनैतिक वातावरण छाया था
जहाँ माँगे हुए वोटो का असर कभी दिखता ही नही था
हर शहर में, एक अलग भीड़ नज़र आती है
हर शहर अपनी दास्तां खुद लिखता है
कोई गुलाल के रंगो में रंगा हैं
तो कोई खून की होली खेल रहा है
कोई जाति के दंगे फ़साद झेल रहा है
तो कोई बाबरी मज़्ज़िद के मुद्दे उखेड़ रहा है
शहर क्या होता है- हम लोगो का बसेरा
हम लोगों का डेरा
हम ही शहरों को आबाद करते हैं
और हम ही इन्हें बर्बाद कर देते हैं
हम वो गंदगी फैलाते हैं, जिन्हे चन्द लोग सिर्फ़ मन में सॉफ करते हैं
करना होगा , आगे बढ़ना होगा
एक नई सुबह का नही-अभी और आज में जीना होगा
वो प्यार फलाना होगा
जहाँ कोई जाति नही....कोई मज़हब नही....कोई भाषा नही...
सिर्फ़ प्यार का साम्राज्य होगा
ऐसे शहर को मिलकर हमे बनाना होगा
- वाणी मेहता
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